राष्ट्रपति श्रीसेना द्वारा रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री नियुक्त करने के बाद श्रीलंका में जारी राजनीतिक घमासान थम गया है। इसके बाद नए मंत्रिमंडल का गठन भी कर दिया गया है। उम्मीद है कि इन कदमों से देश में अगले आम चुनावों तक संवैधानिक स्थिरता कायम रह पाएगी। 26 अक्तूबर को राष्ट्रपति श्रीसेना ने विक्रमसिंघे को अपदस्थ करके चुनाव हार चुके पूर्व राष्ट्रपति महिन्द राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया था। लेकिन यूनाइटेड नेशनल पार्टी यानि यू.एन.पी. और दूसरी विपक्षी पार्टियों ने एकजुटता दिखाते हुए जनता की आवाज़ को दबने नहीं दिया। श्रीसेना और राजपक्षे की मनमानी रोकने में श्रीलंकाई सर्वोच्च न्यायालय ने भी अहम भूमिका निभाई। त्यागपत्र देने के बाद राजपक्षे ने चुनावों की मार्फत फिर से सत्ता में आने की बात कही। उनकी श्रीलंकन पीपल्स पार्टी ने स्थानीय चुनावों में बहुमत हासिल किया है। उन्होंने आरोप लगाया कि यू.एन.पी. ने सत्ता में बने रहने के लिए तमिल नेशनल अलायंस की शर्तों का आँख मूँदकर पालन किया है। श्रीलंका में जारी राजनीतिक घटनाक्रम से साफ है कि देश में सियासी उठापटक आगामी चुनावों तक जारी रह सकती है। इससे हिन्द महासागर के बारे में कोलंबो की नीति की स्थिरता पर भी सन्देह होना स्वाभाविक है। हालांकि, रानिल विक्रमसिंघे और मैत्रिपाल श्रीसेना ने क्षेत्र के कूटनीतिक समीकरणों में सन्तुलन के लिए अनेक प्रयास किए हैं और उनके त्वरित अनुपालन की मंशा भी दर्शाई है। श्रीलंका 2015 से ही हिन्द महासागर क्षेत्र में अपनी अहमियत स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए कोलंबो ने अनेक नीतियाँ बनाईं और पड़ौसी देशों से सामंजस्य स्थापित किया है। इन नीतियों का उल्लेख विक्रमसिंघे की आर्थिक घोषणाओं में किया गया है। हिन्द महासागर क्षेत्र के विकास के लिए श्रीलंका ने 2018 के दौरान ‘गैली’ और ‘ट्रैक 1.5 डायलॉग’ जैसी परिचर्चाओं का आयोजन किया, जिनमें चालीस देशों ने भाग लिया। इन परिचर्चाओं में भारत ने भी गर्मजोशी से हिस्सेदारी की। इन सम्मेलनों में कोलंबो ने इस क्षेत्र में नौवहन और डिजिटल कनेक्टिविटी की स्वतंत्रता पर बल दिया, ताकि सभी सहभागियों की समृद्धि सुनिश्चित की जा सके। इसके साथ ही हिन्द महासागर में शान्ति और सुरक्षा के उपायों पर भी विस्तार से चर्चा की गई। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण श्रीलंका इस क्षेत्र में केन्द्रीय भूमिका निभाने में सक्षम है। तीस वर्षों के जातीय संघर्ष के चलते श्रीलंका इस क्षेत्र में वाजिब भूमिका से महरूम रहा है। इन दिनों वह एशिया में अपनी नई पहचान स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है। जापान, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया के साथ ‘क्वाड’ बनाकर वह एशिया प्रशान्त में सहयोग बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। हाल के दिनों में बन्दरगाह और मूलाधार निर्माण के मामले में चीन सबसे बड़ा निवेशक बनकर उभरा है। यही वजह है कि श्रीलंका ने अपना हम्बनटोटा बन्दरगाह 99 वर्षों की लीज़ पर चीन को दे दिया है। इससे पता लगता है कि वह उभरती ताकतों के साथ शक्ति सन्तुलन की नीति पर चल रहा है। श्रीलंका हिन्द महासागर में नौवहन को सुरक्षित बनाने के लिए प्रयत्नशील है और इसके लिए भारत के साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ना चाहता है। भारत और श्रीलंका का मानना है कि हिन्द महासागर में शान्ति और सुरक्षा के लिए आपसी सहभागिता ज़रूरी है। ऐसा न होने से ही लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम यानि लिट्टे जैसे संगठनों का उदय होता है। इसलिए दोनों देशों को सभी मौजूदा संसाधनों का इस्तेमाल करके क्षेत्रीय और सामुद्रिक सुरक्षा मज़बूत करनी चाहिए। इसके लिए भारत-मालदीव-श्रीलंका गठजोड़, हिन्द महासागर रिम संगठन और बंगाल की खाड़ी में बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक विकास संगठन यानि बिम्सटैक का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस संस्थाओं के माध्यम से हिन्द महासागर में सुरक्षा स्थिति बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। पिछले कुछ सालों में भारत और श्रीलंका ने सभी स्तरों पर सहयोग बढ़ाने के लिए उत्साहजनक प्रयास किए हैं। श्रीलंका ने भारत को आश्वस्त किया है कि क्षेत्रीय सुरक्षा के प्रति भारत की चिन्ताओं को समझता है और इसके लिए हर तरह के सहयोग के लिए तैयार है। आलेख - डॉ. एम. सामंथा, हिन्द महासागर संबंधी मामलों के कूटनीतिक विश्लेषक। अनुवाद और वाचन - डॉ. श्रुतिकान्त पाण्डेय